Monday, 11 June 2007
मानसून के पहले ..ये मनभावन मेवला गीत
मालवा पर प्रकृति की सदा मेहर रही है.कुदरत की सौजन्यता से ही मालवा 'पग पग रोटी,डग डग नीर' से सम्पन्न बना है.,मालवा के लोक-गायकों ने सदैव से अलमस्त प्रकृति से स्वार्थ की जगह जन-मन के शुभ-भावों को उजागर करने का आग्रह किया है.मालवा मे चौमासे को बड़ा आदर दिया गया है.समीसांझ के मेवला को आदरणीय पावणा (मेहमान) माना गया है और उसे मालव की सुहानी रात में विश्राम का खुला न्योता प्राप्त हुआ है.अब मनभावन मालवा मनुष्य की बेपरवाही से बंजर होने की कगार पर है. पग-पग रोटी देने वाला मालवा अब कहीं अतीत में खोता जा रहा है. कुंओं से उलीचता जल अब आंखों का नीर बन कर झरने को मजबूर है.भावनाओं के स्तर पर हमने जिस तरह से अपने जन-पदीय परिवेश को दांव पर लगाया है ; प्रकृति भी उससे अछूती नहीं है. समय रह्ते हमें मन में झांकने की ज़रूरत है कि कहां गया हमारा वो प्यारा मालवा जिस पर मेघ केवल मंडराते नहीं थे; झमाझम झूमते हुए बरसते भी थे.मेवला गीतों यानी वर्षा गीतों मे लोक कवियों ने उज्जैन की महारानी और राजा भर्तहरी की रानी पिंगला के विरह की तरफ़दारी कर अनगिन भाव संवेदनाएं गाईं हैं.मालवी लोकगीतों की पावन आकांक्षाओं से प्रेरित मेरा ये मेवला गीत बानगी के बतौर पेश कर रहा हूं.उम्मीद है आपका मन भी भिगेगा इन पंक्तियों को पढते हुए:
बरस बरस मेवला, तन में तरस जागी रे
मन मे अगन लागी रे
मेवला बरस बरस
हिवड़ा की धूणीं में, लपटां की सांसा
चातक का कंठ तक , आई अटकी आसा
धरती है तरसी ने बैल उदासा
सरवर पे,पनघट पे, पंछीड़ा प्यासा
चमक दमक मेवला, मन मे तरस जागी रे
तन में अगन लागी रे
मेवला बरस बरस
भोला कावडियाजी, सोरम घट ला रे
कवि कालिदास से,पात्यां भिजा रे
विन्ध्या के कांधा पे बैठी ने आ रे
मालव की रातां मे पमणई में आ रे
हरख-हरख मेवला , मन में तरस लागी रे
तन में अगन जागी रे
मेवला बरस बरस
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