Wednesday 9 April 2008

मालवा के लोक-नाट्य माच में थिरकतीं हैं मानवीय संवेदना

मालवी माच में केवल मनोरंजन नहीं है, इसमें लोकरंजन है। मनोरंजन तो केवल मन रंजन करता है और वह केवल मन को रास आता है। मनोरंजन तो बदलता रहता है, व्यक्ति की मानसिक स्थिति के अनुसार और इसीलिए वह अपनी-अपनी रूचि से बनता-बिगड़ता भी है। इसमें केवल आमोद, प्रमोद, विनोद और वैयक्तिक मनोरंजन के लिए आग्रह होता है। इसलिए यह व्यक्ति, जाति, वर्ग के अनुसार बदलता रहता है। दूसरों शब्दों में हम कह सकते हैं कि मनोरंजन के आचरण में पूर्वाग्रह भी आड़े आते हैं जबकि लोकरंजन किसी व्यक्ति या वर्ग का न रहकर पूरे लोक का होता है। मालवा का माच लोकरंजन है। उसमें समग्र लोक की सांस्कृतिक चेतना का भाव है। उसका आश्रय लोक मन ही है। और यह लोक मन ही माच जैसी प्रदर्शनकारी लोककला का चयन करता है। मालवा का माच सबके मन का रंजक है। माच की यह लोकरंजकता सहज रूप से एक कालखंड तक नहीं चलती। उसमें काल के पार जाने की उदारता भी है। इसे समझने के लिए तटस्थ और निरपेक्ष दृष्टि चाहिए। यहॉं ((कलाकार लोक की सभी संवेदनाओं और सामाजिक रेखाओं से जुड़ता है। इसीलिए जब माच के मंच पर लोक कलाकार नृत्य करता है तब उसके पॉंव की थिरकन का आभार और आनंद सभी के मन में ठेका देने लगती है, ताल देने लगती है। माच की तरह लीला और अन्य लोक नाट्यों में कलाकार लोक के शारीरिक, मानसिक और आत्मिक भावों को मुद्राओं, अभिनय और संवाद में दर्शाता है, किन्तु माच में अभिनय की विशिष्टता है। उसमें अतीत के चरित्र, इतिहास, परम्परा, मान्यता और मर्यादा का हितोपदेश भी छिपा रहता है। उसमें अपनी के अस्मिता की रक्षा का भाव प्रमुख है। मालवी माच की ख़ूबी है कि उसमें लोकरंजन के तमाम तत्व मौजूद हैं। उसमें समाज की कुत्सित भावनाओं को हास्य और विनोद के माध्यम से फूँक कर उड़ा देने की क्षमता है। उसमें कुत्सित भावनाओं की साज़िशें नहीं चलतीं। माच में एक विशेषता और भी है, वह यह कि उसमें भेदभाव के लिए जगह नहीं है। राजा की हीन हरकत को माच नहीं बख्शता और चाकर के ईमान को वह सलाम करता है। लोक आदर्शों की वफ़ादारी है माच में। उसमें सर्वत्र स्वच्छंदता के साथ लोकहित सर्वोपरि है।

मालवी माच ने युग के परिवर्तन के साथ समुचित परिवर्तन नहीं किया। लोकनाट्य माच ने विकास का रास्ता नहीं ढूंढ़ा। इसके अनेक कारण हो सकते हैं। इस पर आज के उन तमाम कलाकारों को जो लेखन और अभिनय से जुड़े हैं, जो लोकसंगीत और इतर रंगमंचीय कलाओं से जुड़े हैं, उन्हें मालवा के माच की अंदरूनी मासूम ताकत को पहचानना और जानना ज़रूरी है। यह भी सोचा जाना चाहिए कि आज माच की मॉंग क्यों नहीं है ? जबकि छत्तीसगढ़ में अभी भी हबीब तनवीर के एकल प्रयास से नाचा जीवित है। दरअसल, माच में समसामायिकता को जगह मिलनी चाहिए। यह भी स्वीकारना होगा कि आज जबकि पूरी लोक संस्कृति पर हमले कायम हैं, वैश्वीकरण और बाज़ारवाद ने हमारी लोकरूचि और जनरूचि को विकृत करने के सारे मंसूबे बना लिए हैं, हमें सोचना होगा कि हमारा लोकजीवन, हमारी प्रकृति, हमारा पुनीत जैविक पर्यावरण कैसे अभिव्यक्त हो, माच जैसे लोकरंजक माध्यमों से।
-नरहरि पटेल

उज्जैन के अंकुर मंच द्वारा हाल ही प्रकाशित और डॉ.शैलेंन्द्रकुमार शर्मा द्वारा संपादित महत्वपूर्ण दस्तावेज़ 'मालवा का लोक-नाट्य माच और अन्य विधाएँ...पुस्तक की विस्तृत समीक्षा शीघ्र ही

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