Friday 31 December 2010

मालवी को मिले राजभाषा का मान


लोकप्रिय हिन्दी दैनिक नईदुनिया में पिछले दिनों श्री राजेश भण्डारी का लिखा एक लेख प्रकाशित हुआ जिसमें मालवी को राजभाषा बनाए जाने की ठोस दलील दी गई है.मालवी अनुरागियों के लिये यह लेख नईदुनिया से साभार और श्री भण्डारी को इस मुद्दे को उठाने के लिये मालवी-जाजम की ओर से हार्दिक साधुवाद.

मालवा क्षेत्र पूरे विश्व में विख्यात है। यहॉं की शब-ए-मालवा पूरे विश्व में प्रसिद्ध है। मालवा का मौसम, मालवा का भोजन, मालवा की रातें और "मालवी' भाषा विश्वविख्यात है।

मालवी के संस्थापक चन्द्रगुप्त मौर्य माने जाते हैं। मुस्लिम व लोकतंत्र शासन में मालवी को सबसे ़ज़्यादा उपेक्षित किया गया। मालवा क्षेत्र शुरू से ही संपन्न व शांत क्षेत्र रहा है जिसके फलस्वरूप बाहरी लोगों का क्षेत्र में आना स्वाभाविक रूप से होता गया, लेकिन नतीजा यह हुआ कि मालवी भाषा ग्रामीण भाषा बनती चली गई व हिन्दी खड़ी शहरी क्षेत्र में उपयोग में आने लगी। जो मालवा राज्य व केन्द्र सरकार को टैक्स के रूप में भरपूर राजस्व देता है उसकी मातृभाषा के विकास के लिए सरकार ने कुछ भी प्रयास नहीं किया। शहरों में मालवा उत्सव के नाम पर आदिवासियों व लड़कियों का नृत्य करवाकर मालवी-संस्कृति का दिखावा करवा दिया जाता हैजिसका मालवी भाषा से दूर-दूर तक कोई मेल नहीं होता है।

अमेरिका की एक एनजीओ २००९ में करोड़ों रुपए खर्च कर बिजुमन वर्गीस, मैथ्यू जॉन, नेल्सन सेम्योल द्वारा मालवी भाषी क्षेत्र का एक सर्वे करवाया। इसमें २८० पृष्ठों की रिपोर्ट तैयार की गई है। इसके अनुसार मालवी भाषा उज्जैन, महिदपुर, नागदा, रतलाम, जावरा, महू, इन्दौर, मंदसौर, नीमच, मनासा, राजगढ़, जीरापुर, नरसिंहगढ़, सीहोर, आष्टा, मनावर, सरदारपुर, धार, बदनावर, भोपाल, बैरसिया, झालरापाटन, गंगधार आदि तालुका में लगभग १ करोड़ लोग मालवी भाषा बोलते हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि लोगों से पूछा गया है कि उनकी भाषा में लिखा गया साहित्य यदि उपलब्ध हो तो क्या वे पढ़ेंगे ? तो ९५ प्रतिशत लोगों ने "हॉं' में जवाब दिया। इसका मतलब यह है कि सरकार द्वारा मालवी साहित्य की रचना, विकास पर कोई ध्यान नहीं दिया गया।

ख़ुशी की बात यह है कि विक्रम विश्वविद्यालय द्वारा एमए उत्तरार्द्ध (हिन्दी) के विद्यार्थियों को मालवी साहित्य पढ़ाया जा रहा है। मंदसौर के पीजी कॉलेज में मालवा माटी की महक, मालवी भाषा का लोक साहित्य पढ़ाया जा रहा है। उक्त एनजीओ की रिपोर्ट में "नईदुनिया' अख़बार का मुख्य रूप से ज़िक्र किया गया है कि यह ही एकमात्र अख़बार है, जो मालवी लोक साहित्य के प्रकाशन में अग्रणी है।

मालवी को राजभाषा बनाने के लिए मालवा क्षेत्र के सभी मालवीभाषी लोगों, राज्य सरकार, यहॉं के जनप्रतिनिधियों व यहॉं के साहित्यकारों को सामूहिक रूप से प्रयास करना होगा, तभी मालवी को राजभाषा का दर्जा दिलाया जा सकेगा। यदि समय रहते इस ओर प्रयास नहीं किए गए तो मालवी के अस्तित्व को बचाना मुश्किल हो जाएगा।

साहित्य की हम बात करें तो मालवी का एक शब्दकोष डॉ. प्रहलादचंद जोशी द्वारा तैयार किया गया है जिसका प्रकाशन दिल्ली की किसी प्रकाशक कंपनी द्वारा किया गया है। मालवी की सेल्फ़ स्टडी बुक, जो डॉ. जोशी द्वारा लिखित है, भी आसानी से उपलब्ध है। केन्द्रीय गृह मंत्रालय का राजभाषा विभाग, ज़िला प्रशासन व राज्य सरकार का संस्कृति मंत्रालय भारतीय संविधान के अनुच्छेद ३४५ में राज्य सरकार मालवी भाषा को राजभाषा का दर्जा देने में सक्षम है।

Monday 1 March 2010

सब हिल-मिल आज खेलो होली - सुनिये ये मालवी गीत














सब हिल-मिल
आज खेलो होरी


अध-बूढ़ा ने बूढ़ा-आड़ा
बण ग्या है छोरा-छोरी

गेंद-गुलाबी रूप लजीली
मान करे क्यूं ए गोरी

फ़ागण तो रंगरेज हठीलो
रंग दियो अंगो और चोली

बिरहण ऊबी पीहर कँवरे
मन में भरम भर्यो भोरी

(भाव:बिरहन अपने प्रीतम से दूर मायके में है
और उसके मन में कई भोली भ्रम भरे हुए हैं)

रंग की मटकी सीस भरी जद
कान्हा यें झटपट फ़ोरी

तन तो होरी चोडे खोले
मन खेले चोरी-चोरी

मन गेर्या ने जो बांधी दे
बांधो प्रीत की वा डोरी


(भावार्थ:गेर्या यानी वे हुरियारे जो रंग उड़ाते निकले हैं;
तो मन उन हुरियारों को प्रीत की डोर में बांध दे ऐसी होली खेलो)


Sunday 28 February 2010

प्रेम अबीर उछाल;होली लाई रंग गुलाल

आप सभी को होली की राम-राम
लोक पर्वों का मज़ा ग्रामीण अंचलों में कुछ अलग ही रंगत के साथ मौजूद है.जैसी होली मैंने अपने मालवा के गाँवों में देखी है;खेली है वैसी बात अब शहरों में नज़र नहीं आती. मेरी बोली मालवी में राजस्थानी और गुजराती भाषा का वैभव बड़ी मधुरता के साथ आ समाया है .बरसों पहले यह होली गीत लिखा था जिसे बहुत पसंद किया जाता रहा है.आप अपनी ही आवाज़ में सुना रहा हूँ;मुलाहिज़ा फ़रमाएँ.


रे मनवा रंग तन,रंग मन
होली लाई रंग गुलाल

प्रीत को काजल आँख में आंजो
कारा कारा मन ने चाँदी सा मांजो
पातालाँ में गाड़ी दो मलाल

हेत को मंदर कितरो बड़ो हे
अंदर जींके साँवरो खड़ो है
श्रम के आगे हार्यो हे काल

भूख, ग़रीबी को कीचड़ कारो
कई नीं हे थारो,कई नी हे म्हारो
झूठा हे सब जंजाल


एक ऊँचो,एक नीचो बात पुराणी
भई भई मिली ने भीत गिराणीं
हाथाँ में लई लो कुदाल

भर पिचकारी,नवा नवा रंग की
थाप लगा धिना-धिन्ना मिरदंग की
प्रेम अबीर उछाल

झूठ की होली जली-जली जावे
साँच ने भई कुण, आँच लगावे
साँच हे ऊँचो भाल

शुक्रिया.हो सका तो कल एक गीत और सुनाऊंगा.

शब्दार्थ>कारा:काला/कितरो:कितना/हेत:समन्वय/हार्यो:हार गया/कुण:कौं