Wednesday 30 April 2008

तपते मौसम में हिन्दी तर्जुमे के साथ मालवी की ग़ज़ल !

बोली की अपनी ख़ूबसूरती है. हालाकि भाषा पंडित बोली से
थोड़े नाराज़ ही रहते हैं . अपने अपने अंचल में बोली का
अपना विन्यास,मुहावरे,लहजा और कहन है.मालवी भी इससे अछूती नहीं है.
आलम ये है कि इन्दौर, उज्जैन,रतलाम,धार
या मंदसौर (तक़रीबन २०० कि.मी के रेडियस में)मालवी अंदाज़ बदल जाता है.
रतलाम में जो अठे (यहाँ) है वह उज्जैन में अइने हो जाता है और इन्दौर में याँ.
इस तरह से बोली हमेशा एक शब्द यात्रा में ही रहती है. आपको मेरे मुलुक
मालवा की मिठास का स्वाद चखाने के लिहाज़ से ये ग़ज़ल अपने मालवी जाजम
पर जारी कर रहा हूँ.
बेटे संजय का इसरार था कि आप सादा पंक्तियों
में मालवी मिसरे का तर्जुमा भर हिन्दीं में कर दें जिससे
मालवी न जानने वाले पाठक भी इस ग़ज़ल का लुत्फ़ उठा सकें .
मैने तर्जुमें यानी अनुवाद को भी तुकांत बनाने की कोशिश की है.
आशा है अनुवाद को भी तुक में पढ़ने का मज़ा भी आपको मिल सकेगा.

गर्मी ने आप-हम सब को हैरान परेशान कर रखा है ऐसे में ये
ग़ज़ल पूरे परिवेश और इंसानी रिश्तों को ज़ुबान देने का प्रयास है.
मैं विगत एक दशक से मालवी ग़ज़ल कह रहा हूँ,तीन मजमुए शाया
हो चुके है और आपको बताते हुए
ख़ुशी है कि मालवी ग़ज़लों को मैने मुशायरों में भी पढ़ा है
और जानेमाने शायरों ने भी इन्हें अपनी प्रेमल दाद दी है.
हम सब जानते ही हैं कि ग़ज़ल अब उर्दू के साथ
सिंधी,मराठी,गुजराती में भी कही जा रही है
और हाँ मालवी की साथन निमाड़ी में भी ग़ज़ल विधा में ख़ासा काम हो रहा है
जिसकी बानगी भी जल्द ही आपकी ख़िदमत में पेश की जाएगी.

(साथन यानी सखी; ये शब्द लेखक और पत्रकार श्री यशवंत व्यास का है
जो उन्होंने मालवा के अग्रणी अख़बार नईदुनिया में मालवी - निमाड़ी
कॉलम थोड़ी-घणी को शुरू करते वक़्त दिया था. यशवंत भाई
भी मेरे मालवा के ही सपूत हैं)



मुलाहिज़ा फ़रमाएँ ये मालवी ग़ज़ल.....

तवा सा तमतमाता त्रास का दन
तरस का तिलमिलाता प्यास का दन


तवे से तमतमाते त्रास के दिन
तरसते तिलमिलाते प्यास के दिन

अलूणी साँझ रात खाटी है
निठारा निरजला उपास का दन


ये फीकी साँझ -रात नफ़रत की
निपट ये निरजले उपवास के दिन

खाली हे कुवाँ-बावडी,खाली हे घट
उखड़ती सांस का विनास का दन


ख़ाली हैं कुएँ-बावडी और घट
घुटन के हैं उखड़ती सांस के दिन

तीखा तीखा हे बोल घाव घणा
दोगला दरद का हे फ़ाँस का दन


तीख़े तीख़े से हैं ये घाव बहुत
दर्द के दोगले ये फ़ाँस के दिन

आव-आदर नीं कोई प्रीत सरम
खाटा खाटा कसा खटास का दन


न कोई प्रेम-आदर लाज न शर्म
ये कैसे कटकटे खटास के दिन

हत्या हे द्वेस न्याव नी कोई
दनछता ई कसा उजास का दन


हत्या है द्वेश है और न्याय नहीं
ये कैसे उजले-उजास के दिन

पीड़ा लम्बी घणी हे छाया गुम
खजूर-खेजड़ा का बाँस का दन


नहीं छाया है लम्बी पीड़ाएँ
बबूल,खजूर और बाँस के दिन

थू थू नाता थू थू कड़वा रिस्ता
’पटेल’ हे कठे मिठास का दन


थू थू नाते हैं और कड़वे रिश्ते
पटेल कहाँ हैं वो मिठास के दिन


मुझे आपकी अनमोल दाद का इंतज़ार है.
नरहरि पटेल099265-60881

Thursday 17 April 2008

विख्यात मालवी लोकगीत गायक रामअवतार अखण्ड को भेराजी सम्मान


जाने माने मालवी लोक-गीत गायक श्री रामअवतार अखण्ड को सन 2008
का भेराजी सम्मान दिया जा रहा है। उज्जैन में 18 अप्रैल को आयोजित
एक भव्य समारोह में अखंडजी इस सम्मान से नवाज़े जाएंगे।
अभी तक इस सम्मान से बालकवि बैरागी,नरहरि पटेल,नरेन्द्रसिंह तोमर,आनन्दराव
दुबे,भावसार बा,प्यारेलाल श्रीमाल,हरीश निगम,शिव चौरसिया,सिध्देश्वर सेन आदि
कई विभूतियां सम्मानित हो चुकीं हैं। अखण्डजी सगुण – निर्गुण मालवी गीतों
के सुमधुर गायक हैं। ये जानकारी देना भी प्रासंगिक ही होगा कि भेराजी यानि
आकशवाणी इन्दौर के किसान भाइयों के लोकप्रिय कार्यक्रम के आशु-प्रसारणकर्ता और
जाने माने लोकगीत गायक थे।ये सम्मान भेराजी का परिवार पिछले बीस वर्षों से
उज्जैन में आयोजित कर रहा है। कोशिश की जाती है कि मालवा से ही जुडे हुए
किसी कलाकर्मी को प्रतिवर्ष सम्मानित किया जाए।

कलाकार सदैव ही अपनी सभी रचनाओं की प्रस्तुति मन-प्राण से देता है। हर प्रस्तुति में भावनाओं और गायकी के अनूठे रंग भरता है। लेकिन कोई एक प्रस्तुति ऐसी होती है जो कलाकार की हस्ताक्षर रचना बन जाती है। श्रोताओं को भी ना जाने क्यूँ उसी एक रचना को बार-बार सुनने में अधिक रस मिलता है। इसी तरह से श्री रामअवतार अखण्ड का भजन "दरसन देता जाजो जी, सासरिया की बात पीहर में केता जाजो जी' श्रोताओं में अत्यंत लोकप्रिय है। आकाशवाणी इन्दौर पर रेकॉर्ड किया गया निर्गुणी छाप वाला यह लोकगीत विविध भारती के प्रातःकालीन प्रसारण "वंदना' में सैकड़ों बार सुना गया! विविध भारती जैसी लोकप्रिय राष्ट्रीय प्रसारण सेवा में इस भजन का बजना मालवी लोक संस्कृति का गौरव-गान है।

लोक संगीत प्रकृति की अद्भुत देन है। यही वजह है कि मालवा का लोक संगीत मन को गहराई तक छूता है। चंबल, शिप्रा-सी पवित्रता लिए और कल-कल करते मालवा के भोले लोकगीत घर-आँगन, रिश्तों, तीज-त्यौहारों और सूरज-चंदा, नदी, पवन, आकाश जैसे तत्वों का बखान करते हैं। दुनिया कितनी ही आगे बढ़ जाए, मालवा का लोक संगीत हमेशा मनुष्य के अस्तित्व के मूल का स्मरण दिलाता आया है। मालवा के लोक संगीत की सबसे बड़ी ताक़त वह सहृदयता है जिसमें सूर, तुलसी, कबीर, मीरा, गोरख की पवित्र बानी उन्मुक्त होकर गूँजती है। जब-जब मालवा के लोक संगीत को सरल, सहज और आडंबरविहीन स्वर मिला वह कुछ अधिक ही चहक उठा है। वह कभी मन की ख़ुशी बढ़ाता, कभी थके मन को दिलासा देता, कभी जीवन के संघर्ष की पूछताछ करता है; तो कभी मांगलिक प्रसंग की धजा बनकर घर-आँगन में गूँजता यह मालवा का लोक संगीत जीवन के प्रमाद को नष्ट कर उल्लास की सृष्टि करता है।

श्री रामअवतार अखण्ड ने मालवा के लोक संगीत को आगे बढ़ाने में हमेशा अपना विनम्र योगदान दिया है। प्रचार-प्रसार से परे श्री अखण्ड उन खरे गायकों में से हैं जो मालवी लोकगीत गा कर स्वयं आनंदित होते हैं, यह अलग बात है कि उनके आनंद को एक बड़ा श्रोता-वर्ग सहज अपने हृदय में समेट लेता है। शब्दप्रधान गायकी कहलाने वाला मालवा का लोक संगीत किसी शास्त्र में बंधा हुआ नहीं है, वह तो गायक की स्फूर्त भावना का इज़हार करता है और श्री अखण्ड के कंठ से झर कर न जाने कितने श्रोताओं के आनंद का हिस्सेदार बनता है। श्री अखण्ड की गायकी सरलता से सजी हुई है और वह हमेशा इस बात को व्यक्त करती रही है कि लोक संगीत से अभिव्यक्त होती सुरभि पहले गाने वाले को आनंदित करे तो वह अपने आप सुनने वाले की अमानत बन जाती है।
श्री रामअवतार अखण्ड का सरल-सहज स्वर मालवी परिवेश का सुरीला प्रतिनिधि है। सन् २००८ का भेराजी सम्मान इस भावुक कलाकार को दिया जा रहा है।

श्री अखण्ड की प्रथम कैसेट का शीर्षक-गीत "प्यारे लागे रे म्हारो मालवो देस' मालवा के उत्सवों, मेलों, विश्वविद्यालयीन युवा उत्सवों और ना जाने कितनी टी.वी. फ़िल्मों के पार्श्व में बजता रहा है। सादा धुन और मीठी मालवी में भीगा यह गीत कुछ इतना सुना जा चुका है कि यह स्वतः ही लोकप्रिय हो गया है। श्री अखण्ड जैसे लोकगायक की यह सबसे बड़ी उपलब्धि है। जब कोई गीत अवाम की ज़ुबान पर चढ़ जाता है तो समझिए उसने लोकप्रिय होने का पद पा लिया !
-संजय पटेल

Wednesday 9 April 2008

मालवा के लोक-नाट्य माच में थिरकतीं हैं मानवीय संवेदना

मालवी माच में केवल मनोरंजन नहीं है, इसमें लोकरंजन है। मनोरंजन तो केवल मन रंजन करता है और वह केवल मन को रास आता है। मनोरंजन तो बदलता रहता है, व्यक्ति की मानसिक स्थिति के अनुसार और इसीलिए वह अपनी-अपनी रूचि से बनता-बिगड़ता भी है। इसमें केवल आमोद, प्रमोद, विनोद और वैयक्तिक मनोरंजन के लिए आग्रह होता है। इसलिए यह व्यक्ति, जाति, वर्ग के अनुसार बदलता रहता है। दूसरों शब्दों में हम कह सकते हैं कि मनोरंजन के आचरण में पूर्वाग्रह भी आड़े आते हैं जबकि लोकरंजन किसी व्यक्ति या वर्ग का न रहकर पूरे लोक का होता है। मालवा का माच लोकरंजन है। उसमें समग्र लोक की सांस्कृतिक चेतना का भाव है। उसका आश्रय लोक मन ही है। और यह लोक मन ही माच जैसी प्रदर्शनकारी लोककला का चयन करता है। मालवा का माच सबके मन का रंजक है। माच की यह लोकरंजकता सहज रूप से एक कालखंड तक नहीं चलती। उसमें काल के पार जाने की उदारता भी है। इसे समझने के लिए तटस्थ और निरपेक्ष दृष्टि चाहिए। यहॉं ((कलाकार लोक की सभी संवेदनाओं और सामाजिक रेखाओं से जुड़ता है। इसीलिए जब माच के मंच पर लोक कलाकार नृत्य करता है तब उसके पॉंव की थिरकन का आभार और आनंद सभी के मन में ठेका देने लगती है, ताल देने लगती है। माच की तरह लीला और अन्य लोक नाट्यों में कलाकार लोक के शारीरिक, मानसिक और आत्मिक भावों को मुद्राओं, अभिनय और संवाद में दर्शाता है, किन्तु माच में अभिनय की विशिष्टता है। उसमें अतीत के चरित्र, इतिहास, परम्परा, मान्यता और मर्यादा का हितोपदेश भी छिपा रहता है। उसमें अपनी के अस्मिता की रक्षा का भाव प्रमुख है। मालवी माच की ख़ूबी है कि उसमें लोकरंजन के तमाम तत्व मौजूद हैं। उसमें समाज की कुत्सित भावनाओं को हास्य और विनोद के माध्यम से फूँक कर उड़ा देने की क्षमता है। उसमें कुत्सित भावनाओं की साज़िशें नहीं चलतीं। माच में एक विशेषता और भी है, वह यह कि उसमें भेदभाव के लिए जगह नहीं है। राजा की हीन हरकत को माच नहीं बख्शता और चाकर के ईमान को वह सलाम करता है। लोक आदर्शों की वफ़ादारी है माच में। उसमें सर्वत्र स्वच्छंदता के साथ लोकहित सर्वोपरि है।

मालवी माच ने युग के परिवर्तन के साथ समुचित परिवर्तन नहीं किया। लोकनाट्य माच ने विकास का रास्ता नहीं ढूंढ़ा। इसके अनेक कारण हो सकते हैं। इस पर आज के उन तमाम कलाकारों को जो लेखन और अभिनय से जुड़े हैं, जो लोकसंगीत और इतर रंगमंचीय कलाओं से जुड़े हैं, उन्हें मालवा के माच की अंदरूनी मासूम ताकत को पहचानना और जानना ज़रूरी है। यह भी सोचा जाना चाहिए कि आज माच की मॉंग क्यों नहीं है ? जबकि छत्तीसगढ़ में अभी भी हबीब तनवीर के एकल प्रयास से नाचा जीवित है। दरअसल, माच में समसामायिकता को जगह मिलनी चाहिए। यह भी स्वीकारना होगा कि आज जबकि पूरी लोक संस्कृति पर हमले कायम हैं, वैश्वीकरण और बाज़ारवाद ने हमारी लोकरूचि और जनरूचि को विकृत करने के सारे मंसूबे बना लिए हैं, हमें सोचना होगा कि हमारा लोकजीवन, हमारी प्रकृति, हमारा पुनीत जैविक पर्यावरण कैसे अभिव्यक्त हो, माच जैसे लोकरंजक माध्यमों से।
-नरहरि पटेल

उज्जैन के अंकुर मंच द्वारा हाल ही प्रकाशित और डॉ.शैलेंन्द्रकुमार शर्मा द्वारा संपादित महत्वपूर्ण दस्तावेज़ 'मालवा का लोक-नाट्य माच और अन्य विधाएँ...पुस्तक की विस्तृत समीक्षा शीघ्र ही