Friday 22 June 2007

चार लाईन में रिस्ता की बात

मालवी जाजम पे आज मालवी में लिखी कविता पेश हे.रिश्ता की गंध अपणी बोली ज्यादा मीठी वई जाए हे.
म्हारो यो भी प्रयास हे कि इण चिट्ठा पे गीत,कविता,गजल,हाईकू,दोहा,मुक्तक सबका सब नमूदार वे.म्हारो यो भी केणो हे कि बोली को मानकीकरण मुश्किल काम हे. बोली को आँचल खूब बडो़ हे ने वीमे जतरी बी दीगर बोली-भाषा आवे ...बोली के बरकत वदे(बढे़)हे.तो आज आप बांचो म्हारी चार लाईन की चार कविता इणमें रिस्ता का नरा (बहुत से) रंग आपके मिलेगा.


माँ

आज भी थपके हे म्हारी नींदा ने थारी लोरी
म्हने याद हे ममता की थारी झीणी झोरी
फाटा पल्ला में ढाँकी ने अपणी भूख तरस
माँ कस्तर उछेरया वेगा थें चाँद-सूरज

टीप:
झीणी:पतली
कस्तर:किस तरह
उछेरया:बडे़ किये होंगे

ममता:

म्हारा हिरदां में लाग्यो दूध थारो सिंदूरी
पेली बरखा की जाणे वास वसी कस्तूरी
तू तो देतीज रिजे माँ म्हारी जामण-गंगा
म्हारा माथा पे थारी ममता को ठंडो छांटो

टीप:
वास:गंध
वसी:वैसी
देतीज:देते ही रहना


दादी

सुमरणी हाथ में,आँख्यां में भरया सोरमघट
चुगाती चरकला दादी दया की भण्डारण
अबोली बावडी़ उंडी,वरद की पोटली जूनी
खुणा में सादडी़ सुखी पडी हे आपणीं दादी

टीप:
सुमरणी:राम नाम की माला
चुगाती चरकला:चिड़ियों को दाना खिलाते
उंडी:गहरी
खुणा:कोने में
सादड़ी:चटाई


हीरा-मोती


घेर गुम्मेर कसी छाँव हे अपणा घर की
पूजा हे देवता हे या बड़ा मंदर की
अणमोल्या रतन झडे़ कसा ई दादी का
दूधो न्हावो पूतो फ़लो म्हारा वाला

टीप:
घेर-गुम्मेर:गहरा-घना

Wednesday 20 June 2007

मालवी लोक-नाट्य....माच..गणपति गजल

मालवी जाजम पे आज पधारिया हे मालवी माच का मान...दादा सिध्देश्वरजी सेन.भोला,सरल ओर प्रतिभा का धनी सेनजी नया जमाना का माच का पुरोधा.गाँव-गाँव, गली-गली जईके सेनजी ने मालवी माच मो मान बढायो.जिन्दगी भर अभाव में रिया पर माच को दामन नीं छोड्यो.आकाशवाणी,सूचना विभाग ने (और)पंचायत का तेडा़ (निमंत्रण) पे सेन जी आखा(पूरे) मालवा,निमाड़,राजस्थान,गुजरात में घूम्या और माच को रंग जमायो.माच बडी़ लाजवाब विधा हे.ईंके आप संगीत और नाटक को सामेलो (मेल) कई सको हो.ढो़ल और हारमोनियम पे बारता ( कहाने) केता-केता एक रूपक साकार हुई जाए.कला का पेला देव गणपति जी म्हाराज गजल गई के माच की सुरूआत वे हे.सिध्देश्वर जी सेन उज्जैन में रेता था. जद तक वी रिया ..माच को काम और नाम खूब बढ़यो.सेनजी ने माच की सेवा वेसे ज की जस तर हबीब तनवीर साब ये छत्तीसगढ़ का नाचा की की हे.सिध्देश्वर जी के संगीत नाटक अकादमी को मोटो (प्रतिष्ठित)मान बी (भी) मिल्यो.लोग के कि ग़ज़ल उर्दू में ज (ही) लिखी जाए..पण आपके अचरज वेगा की माच में बी गजल (मालवी में गजल लिखनो अच्छो लगे हे..ईंका से ग़ज़ल नीं लिखी रियो हूं).माच का बारा में आपके आगे बी ओर जानकारी दांगा (देंगे) . आपके या बतई के भोत खुसी वई री हे कि दादा सेनजी का बेटा प्रेमकुमार सेन भी माच ओर मालवी लोक संगीत की सेवा में लग्या हे..उज्जैन में रे हे (रहते हैं)प्रेम भई को कानगुवालिया गीत के खूब पंसद कियो जाए हे..उमें लिख्या हुआ दोहा में नरी (बहुत सी) गम्मत ओर ठिठोली वे हे ओर सबक़ बी .ढोलक ओर खड़्ताल बजात कानगुवालिया
ढांढा-ढोर( मवेशी) की चरवई का वास्ते राजस्थान से मालवा में आवे ने के(कहते हैं)...

आलखी की पालकी...जय कन्हैया लाल की
गोवर्धन गोपाल की ..श्री नन्द्लाल की
धीरे आन दे री जरा धीरे आन दे
धीरे आन दे री जरा धीरे आन दे

पन्नालाल जी पापड़ बेले
धनालाल जी धनियो
बद्रीलाल जी बाटो (मविशियों का आहार) बेचे
घ्रर में पड्ग्यो घाटो

बजार(बाज़ार) का माय(बीच)म्हारो छोरो अडी़ गयो
जलेबी देखी के यो तो आडो़ पडी़ गयो
कानगुवालिया की खासियत या हे कि आप सम-सामयिक प्रसंग पे बी दोहा कई सको हे ..एक उदाहरण देखो..

राष्ट्रपति का पद पे देखो परमिला जीजी आई
सोनियाजी का गीत पे केसी बंसी हे बजाई

ईन कुर्सी पे आज तलक तो आदमी हे बेठ्या
पेली बार बिराजेगा ईण पर देस की लुगाई

तो जींकी अपण हिन्दी में स्फ़ूर्त विचार कां हां वा बात कानगुवालिया में रेती थी.

तो या तो थी कानगुवालिया की बात..आपके यो बी बतई दां कि सेनजी की बेटी कृष्णा वर्मा देस की जाना-मानी कलाकार हे और मालवा का मांडणा बणावा में कृष्णा जी एक म्होटो नाम हे.उनके बी नरा(बहुत से) इनाम मिल्या हे.
अपण बात सुरू करी थी दादा सिध्देश्वर जी सेन से. तो उनके आज मालवी जाजम की श्रध्दांजली देता हुआ अपण मालवी माच मे गणपति वंदना की एक गजल बांची लां हां.

गजानन्द गणराज आज, म्हारी अरज सुणी ने आजो
रिध्दि-सिध्दि दोई पटराणी, के सांते(साथ)तम लाजो

मूसक ऊपर करो सवारी,दरसन बेग(जल्दी) दिखाओ
कंचन थाल धरां मुख आगे,मोदक भोग लगाजो

साय करो मंडली का ऊपर,बिगड़ी बात बणाजो
बीगन(विघ्न)हरो आनन्द करो,हिरदां(ह्रदय)में आय बिराजो


पेलां(पहले) पूजा करां आपकी,अइने(आकर) रंग जमाओ
सिध्देश्वर हे सरन-चरन में गणपति लाज बचाओ.

देख्यो आपने कित्तो सरल खयाल हे आदिदेव गणपति के मनावा को.अब तो दादा सिध्देश्वर जी रामजी का यां जई बस्या हे
पण मालवी माच की बिछात पे उनको नाम आज बी सरदा(श्रध्दा) का साते लियो जई रियो हे.मालवी जाजम पे आज माच का रंग की सुरूआत हे ..गजानन जी पधारी गया हे..देखो आगे आगे कई वे हे...तो फ़ेरे मिलां..राम..राम.

Friday 15 June 2007

मालवी का प्रथम कवि दादा दुबेजी जाजम पे

मालवी कविता का दादा बा आनन्दरावजी दुबे की मुहावरादार मालवी को कई केणो ?
पचास का दशक में शिप्रा का घाट पे पेलो कवि-सम्मेलन व्यो थो तब मालवी को कोई एसो आयोजन नीं व्यो जीमे
आनन्दराव दादा की धारदार मालवी को रंग नीं बिखरयो ।रामाजी रई ग्या ने रेल जाती री दादा की अमर रचना हे।अणी मालवी जाजम पे दादा की वा हस्ताक्षर रचना जल्दी ज बांचोगा आप।दुबेजी की कविता जाणें जुवार बाजरा की फ़सल की तरे धरती से उपजी।दादा दुबेजी सन १९९६ में हमारा बीच से चल्या ग्या।उनकी मीठी मालवी की चमक आज भी बरकरार हे,,,,,,एक बानगी देखो आप

सुण बेटा, म्हारे याद अ इ ग्यो एक केवाड़ो
घर बांदो तो राखजो बाडो़
खेती करो तो लीजो गाड़ो
बेटा, जीका घर मे नीं हे बूढो़-आडो़
उना घर को पूरो हे फ़जीतवाडो़
बात छोटी सी हे पण कितरी तीखी और चोखी हे ।


आज दादा दुबेजी के याद करता अपण उनकी चर्चित रचना वांचां।


छोटा मूंडे बड़ी बात हूं बोलीरयो हूं

जाजम पर एक साथ बठी ने
तन नी देख्या मन परख्या हे
इनी परख में कोई रूठ्या ने , कोई हरख्या हे
घडी़-घडी़ का हेल - मेल से
पास-पडोसी मनख मनख की
छिपी जात हूं खोलीरयो हूं
छोटा मूंडे बड़ी बात हूं बोलीरयो हूं

कुण अईरयो यो तण्या हुवो रे
बीस किताब यो भण्यो हुवो रे
देखो अपणी अक्कल से यो
सांच-झूठ से खरी खोट से
हांसी ने यो फ़ांसीरयो हे
सुन्ना से यौ तुली गयो
चांदी का पलडें यो मोटो हे
छोटा मूंडे बड़ी बात हूं बोलीरयो हूं

सांची सांची खरी पोबात यो नी खोटो हे
कुण गरीब ने कुण अमीर हे
यो फ़सड्डी ऊ मीर हे
खूब बणायो थर्मामीटर
पूंजी को पारो सरके हे
कोण किखे कितरो बुखार हे
प्रीत प्यार सभी निगाह से
देखी परखी तोलीरयो हूं
छोटा मूंडे बड़ी बात हूं बोलीरयो हूं

एक दुबलो ने एक तगडो़ हे
देखो-देखो यो झगडो़ हे
कि डालर सब खे डांटीरयो हे
धीरज कोई खे बांटीरयो हे
घाव पुराणा धूजीरयो हे
लोवा साँते रूई बळे हे
वले चाक पण धुरी गळेबड हे
धीर गंभीरो तरूवर पीपल
छिपई गोयरा साथ बळे हे
दुनिया जाय उजाला में
मुश्यालची ठोकर मत खई जाजो
जाणो लंबी दूर चलनो हे दिन रात
रात कँईं याँ मत रई जाजो
बडी़ बात पर छोटो मूंडो
सुख साठे दुःख मोलीरयो हूं
छोटा मुंडे बडी़ बात हूं बोलीरयो हूं

टीपः
सुन्नाःस्वर्ण
डाटीरयोःडांट रहा है
लोवाः लोहा
छिपइःछिपकली
डालरःअमेरिकी मुद्रा

Monday 11 June 2007

मानसून के पहले ..ये मनभावन मेवला गीत


मालवा पर प्रकृति की सदा मेहर रही है.कुदरत की सौजन्यता से ही मालवा 'पग पग रोटी,डग डग नीर' से सम्पन्न बना है.,मालवा के लोक-गायकों ने सदैव से अलमस्त प्रकृति से स्वार्थ की जगह जन-मन के शुभ-भावों को उजागर करने का आग्रह किया है.मालवा मे चौमासे को बड़ा आदर दिया गया है.समीसांझ के मेवला को आदरणीय पावणा (मेहमान) माना गया है और उसे मालव की सुहानी रात में विश्राम का खुला न्योता प्राप्त हुआ है.अब मनभावन मालवा मनुष्य की बेपरवाही से बंजर होने की कगार पर है. पग-पग रोटी देने वाला मालवा अब कहीं अतीत में खोता जा रहा है. कुंओं से उलीचता जल अब आंखों का नीर बन कर झरने को मजबूर है.भावनाओं के स्तर पर हमने जिस तरह से अपने जन-पदीय परिवेश को दांव पर लगाया है ; प्रकृति भी उससे अछूती नहीं है. समय रह्ते हमें मन में झांकने की ज़रूरत है कि कहां गया हमारा वो प्यारा मालवा जिस पर मेघ केवल मंडराते नहीं थे; झमाझम झूमते हुए बरसते भी थे.मेवला गीतों यानी वर्षा गीतों मे लोक कवियों ने उज्जैन की महारानी और राजा भर्तहरी की रानी पिंगला के विरह की तरफ़दारी कर अनगिन भाव संवेदनाएं गाईं हैं.मालवी लोकगीतों की पावन आकांक्षाओं से प्रेरित मेरा ये मेवला गीत बानगी के बतौर पेश कर रहा हूं.उम्मीद है आपका मन भी भिगेगा इन पंक्तियों को पढते हुए:





बरस बरस मेवला, तन में तरस जागी रे


मन मे अगन लागी रे


मेवला बरस बरस





हिवड़ा की धूणीं में, लपटां की सांसा


चातक का कंठ तक , आई अटकी आसा


धरती है तरसी ने बैल उदासा


सरवर पे,पनघट पे, पंछीड़ा प्यासा


चमक दमक मेवला, मन मे तरस जागी रे


तन में अगन लागी रे


मेवला बरस बरस





भोला कावडियाजी, सोरम घट ला रे


कवि कालिदास से,पात्यां भिजा रे


विन्ध्या के कांधा पे बैठी ने आ रे


मालव की रातां मे पमणई में आ रे


हरख-हरख मेवला , मन में तरस लागी रे


तन में अगन जागी रे


मेवला बरस बरस

दादा तोमरजी का हाथ से..ठूंठ का ठाठ


नरेन्द्रसिंह तोमर मालवी का लाड़का लोक-गीत गायक हे.वणाको नाम आयो नी के आपका मन में गजानंद भगवान को ऊ लोक-गीत याद अई जावे हे जींके आपने विविध-भारती ओर मालवा हाऊस से खूब सुण्यो हे...गवरी रा नंद गनेस ने मनावां..दादा तोमर जी अबे अस्सी पार का हे ओर रामजी की किरपा से स्वस्थ हे ने परदादा वई ग्या हे.दादा देस की आजादी का आंदोलन में भी खूब काम कर्यो.पेला आजादी का वास्ते गीत गाता था,पछे मीरा,सिंगाजी,गोरख,कबीर का लोकगीत गावा लग्या.खूब प्रेम मिल्यो मालवी लोगां को.अबे इकतारा का साथे एक नयो काम दादा ने ली ल्यो हे.दादा को दूसरो रूप एक खालिस किसान को भी हे.तो खेत मे एक दानो(वृध्द) दरख्त काट्यो.नरी(बहुत सी) शाखा,जडा़ निकली ने वणाक अलग अलग रूप इण रूखडा़ और ठूंठ मे देखाया.ईंका पेला एक बार कला गुरू श्री विष्णु चिंचालकर भी दादा तोमर जी का खेत पे ग्या था ने कियो थो कि तोमर तम इण रूखड़ा होण और ठूंठ में ध्यान से देखो केसा केसा सुंदर रूप बणे हे..चरकली बणे हे,घोडो़ बणे हे और तो और डायनोसोर भी बणे हे..तो दादा तोमर जी के बात जंची गी साब..दाद भिड़ ग्या काम में . आप विश्वास नीं करोगा कि दादा तोमर जी का हाथ से दो सो से जादा कला-कृतियां तैयार वई गी हे.दादा का हाथ से इण ठूंठ को ठाठ देखणे जेसो हे....दादा को काम देखवा वास्ते इन्दौर से बीस कोस दूर कम्पेल गांव
का पेला पिवड़ाय आवे हे .आप वठे जई के दादा का खेत पे यो दुर्लभ काम देखी सको हो.दादा तोमर जी को जुनून ने जिद रंग लई री हे ....मालवी जाजम का इण चिट्ठा पे दादा तोमर जी का काम को स्लाइड शो आप देखी सको हो.

भाटो फ़ेकीं ने माथो मांड्यो..

मालवी का यशस्वी हास्य कवि श्री टीकमचंदजी भावसार बा अपणीं रंगत का बेजोड़ कवि था.घर -आंगण का केवाड़ा वणाकी कविता में दूध में सकर जेसा घुली जाता था.मालवी जाजम में या बा की पेली चिट्ठी हे....खूब दांत काड़ो आप सब.आगे बा की नरी(अनेक) रचना याद करांगा.

कविता को सीर्सक हे..
भाटो फ़ेकी ने माथो मांड्यो...

लकड़ी का पिंजरा में चिड़ियां बिठई
चोराय पे जोतिसी ने दुकान लगई
भीड़ भाड़ देखी ने एक डोकरी रूकी
लिफ़ाफ़ो उठायो तो चिट्ठी दिखी

साठ बरस की डोकरी ने बिगर भणीं
बंचावे भी कीसे भीड़ भी घणीं
अतरा में एक छोरो बोल्यो ला मां... हूं वांची दूंगा
जेसो लिख्यो वेगा वेसो कूंगा


लिख्यो थो...
प्रश्न पूछ्ने वाले तुम्हारी अल्हड़ता और सुंदरता पे
आदमी मगन हो जाएगा
और आते महीने तुम्हारा लगन हो जाएगा.

Sunday 10 June 2007

म्हारो हस्ताक्षर गीत...दादी थारी चरखो चाले

चरर मरर ,चरर मरर,चरखो चाले....दादी थारो चरखो चाले......अणी गीत से आखा देस मे म्हने पेचाण मिली.घर-आंगण का मीठा रिस्ता को गीत हे यो.अपणा घर-घर में इ रिस्ता त्याग,संघर्ष ओर प्रेम की पावन डोर वे हे.ईंमे भी घट्टी की चरर - मरर हे और हे परिवार की मंगल कामना का कल्याणी सुर. तीन केन्दीय पात्र हे ..दादी,भाभी,मां.
आओ बांचो...


चरर मरर , चरर मरर, चरखो चाले
दादी थारो चरखो चाले..

खेत में वायो ऊजरो,ऊजरो कपास रे भई
हांक्यो जोत्यो मोखरो , मोखरो कपास रे भई
आछो आछो कातल्यो दादी ये कपास रे भई
दादा थारी खादी को अंगरखो सुवाय रे भई
चरर मरर , चरर मरर चरखो चाले
दादी थारो चरखो चाले.

कारी कारी गाय को धोरो,धोरो दूध रे भई
भरया, भरया माटला , तायो तायो दूध रे भई
मचमचाती माटली छ्पछ्पाती छाछ रे भई
कसमसाती कांचली , चमचमाती खांच रे भई
घमड़ घमड़ घमड़ -घमड़ जावण वाजे
भाभी थारो बेरको हाले


मीठा मीठा बोल पे गीत जाग्या जाय रे भई
म्हारी प्यारी मायड़ी कूकड़ा बोलाय रे भई
जागो सूरज देवता म्हारी मां जगाय रे भई
सोना केरी जिन्दगी चमचमाती आय रे भई
घुमर घुमर घुमर-घुमर घट्टी चाले
मैया थारी घट्टी चाले

दादी थारी छाया में जनम बीत्यो जाय रे भई
भाभी थारो चूड़्लो चमचमातो जाय रे भई
म्हारे आंगण कोई भी नजर नीं लगाय रे भई
मैय्या थारी गोद में सबे सुख समाय से भई
ढमक ढमक, ढमक-ढमक नोबत बाजे

म्हारे घर नोबत वाजे
मैय्या थारी घट्टी चाले
भाभी थारो बेरको हाले
दादी थारो चरखो चाले
दादी थारो चरखो चाले.

टीप>
ऊजरो : उज्ज्वल
बेरको : हाथ में बांधे जाने वाले
बाजूबंद की लटें
मायडी़ : मां
नोबत : एक वाद्य.

कसी लुगायां हे...

सीधी सादी,कसी लुगायां हे
भोली भाली,कसी लुगायां हे

जनम की मां,करम की अन्नपूर्णा
भूखी तरसी, कसी लुगायां हे

पन्ना,तारा,जसोदा मां, कुन्ती
माय माड़ी, सकी लुगायां हे

कुंआरी बिलखे हे,परणी कलपे
घर से भागी,कसी लुगायां हे

गूंगी-गेली,वखत की मारी हे
खूंटे बांधी, कसी लुगायां हे

फ़ांसी-फ़न्दो,तेल ने तंदूर
लाय लागी,कसी लुगायां हे

टीप:

लुगायां:औरतें
माड़ी:मां
परणी:ब्याहता
लाय: आग

म्हारो पेलो चिट्ठो...छोटी छोटी मच्छी कितरो पाणीं

यो एक ध्वनि गीत है.१९६० का पेलां लिख्यो थो. मंच म्हें खूब गायो..नाना-म्होटा सुणवा वाळा के खूब पसंद आयो और आकाशवाणी इन्दौर जींके हम मालवा हाउस का नाम से पेचाणां हां वठे से नरा दन तक वजतो रियो.यो एक पहेली गीत है.जीमे बचपन हे,जवानी हे और हे बुढा़पो.छोटी,थोडी़ सी बड़ी और सबसे बड़ी मछली का मारफ़त या एक पड़्ताल हे कि जीवन का सागर में कितरो पाणी हे..मतलब केवाको यो कि कितरी चुनोतियां हे. आओ आप भी गावो म्हारा साथ.

छोटी छोटी मच्छी कितरो पाणी...कितरो पाणी.
म्हें नी बतावां लावो गुड़धानी,लावो गुडधानी
लो गुड़धानी.

बचपन>
यो सरवर तीर किनारो हे
बस घुटना घुतना गारो हे
भई पाणी की बलिहारी जी
झलमल हे प्यारो प्यारो हे
लो आओ बतावां इतरो पाणी..इतरो पाणी.

ब ब ब ब हप्प....
घूघर मार धमीर को

जवानी>
या नदिया लेर लेरावे हे
कोई डूबे कोई तिर जावे हे
कोई भाटा डूबी जाए
लो आओ बतावां इतरो पाणी...इतरो पाणी.

ब ब ब ब हप्प...
घूघर मार धमीर को

बुढा़पा>
यो सागर गेरो गेरो जी
हाथी घोडा़ सब डूबे जी
सो पुरुस डुबे,सो बांस डुबे
सो झाड़ डुबे,सो पाड़ डुबे

लो आओ बतावां इतरो पाणी...इतरो पाणी.
ब ब ब ब हप्प,घूघर मार धमीर को

टीप:
पाड़:पहाड़

ब ब ब ब ह्प्प
घूघर मार धमीर को: या एक तरह की ध्वनि हे.गीत में साउण्ड इफ़ेक्ट लावा का वास्ते इंके इस्तेमाल कर्यो हे.

म्हारे पूरी उम्मीद हे कि यो पेलो पानड़ो आपके पसंद आएगा.मालवी के आगे बढा़वा का वास्ते आप भी कोशिश करो.इन चिट्ठा पे आप भी अपणी टपाल (चिट्ठी) भेजो ओर मालवी के पुर्न-जीवित करणे को पुण्य कमाओ..ध्यान रखवा की बात या हे कि अपणी बोली अपणी मां हे..ईंको सुहाग अमर रेवे एसी कामना करां. जै राम जी की.